देवी कुशहरी का मंदिर; कहते हैं कि भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने की थी इस मंदिर की स्थपना, दूसरे मंदिर की स्थपना भगवान परशुराम ने की थी

नवाबगंज उन्‍नाव और कुसुंभी में दो अलग-अलग नामों से देवियां स्‍थापित हैं। लेकिन इनकी प्रतिमाएं, मंदिर परिसर और प्रतिमा स्‍थल सबकुछ एक जैसा है। यानी कि मंदिर में प्रवेश करते हैं आपको लगेगा जैसे एक ही मंदिर में दोबारा दर्शन के लिए आए हों। कहा जाता है कि ये दोनों देवियां बहनें हैं। मंदिर को लेकर मान्‍यता है कि एक की स्‍थापना भगवान परशुराम और दूसरे की स्‍थापना स्‍वयं देवी सीता के पुत्र कुश ने की थी और इसके बाद उन्‍होंने यहां पर पूजा भी की थी। आइए जानते हैं क्‍या है इस मंदिर का इतिहास?

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मान्‍यता है कि भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि का आश्रम नवाबगंज के पास ही भितरेपार गांव में था। जहां पर वह तप किया करते थे। उनके पास एक कामधेनु गाय थी। जिसपर उस समय के राजा ने दान में मांगा। लेकिन जमदग्नि ने मना कर दिया। इसपर राजा के पुत्रों ने क्रोधित होकर ऋषि का वध कर दिया। उधर जैसे ही परशुराम जी को पिता के निधन की सूचना मिली तो वह भितरेपार आए। उन्‍होंने सबसे पहले मां दुर्गा की प्रतिमा स्‍थापित की और उस राजा के वंश का नाम-ओ-निशान मिटा देने का प्रण लिया। इसके बाद उन्‍होंने अपने प्रण के मुताबिक उस वंश का ही सर्वनाश कर दिया। तब से यह मंदिर प्रकाश में आया और यहां पर पूजा-अर्चना की जाने लगी। कालांतर में यह मंदिर नवाबगंज, उन्‍नाव में है। यह मंदिर नवाबगंज हाईवे से डेढ़ सौ से 2 सौ मीटर की दूरी पर है। मान्‍यता है कि इस मंदिर में मांगी गई मन्‍नतें कभी खाली नहीं जातीं। यही वजह है कि यहां आसपास ही नहीं बल्कि दूर-दूर से भी दर्शनार्थी अपनी मुरादें लेकर आते हैं।

मां दुर्गा मंदिर से तकरीबन 3 किलोमीटर की दूरी पर कुसुंभी, उन्‍नाव में स्थित है देवी कुशहरी का मंदिर। मान्‍यता है कि इसकी स्‍थापना मर्यादा पुरुषोत्‍तम श्रीराम के पुत्र कुश ने की थी। यही वजह है कि मंदिर का नाम भी उनके ही नाम पर कुश से कुशहरी देवी पड़ा। इसके अलावा इसे पूरे देश में इकलौता ऐसा कुशहरी देवी मंदिर कहा जाता है जहां पर एक ही छत्रधारी घोड़े पर सवार लव-कुश की मूर्ति भी स्‍थापित है। यह मंदिर का संबंध कुश से होना प्रमाणित करता है। पुरातत्‍व विभाग ने भी इसे संरक्षित स्‍थल घोषित किया है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार जब श्रीराम ने माता सीता का परित्‍याग कर दिया था तब लक्ष्‍मण उन्‍हें विदा करने के लिए वन के लिए निकले। रास्‍ते में माता सीता को प्‍यास लगी और उन्‍होंने लक्ष्‍मण से जल लाने को कहा। वह समीप स्थित कुएं से देवी सीता के लिए जल लेने जाते हैं लेकिन तमाम प्रयास के बाद भी वह जल नहीं ले पाते। उन्‍हें बार-बार एक ही आवाज सुनाई देती है पहले मुझे निकालो फिर जल ले जाओ। इसके बाद लक्ष्‍मण कुएं में देखते हैं तब उन्‍हें एक देवी प्रतिमा दिखाई देती है। वह उसे बाहर निकालकर बरगद के पेड़ के नीचे रख देते हैं। इस तरह से मूर्ति का प्राकट्य होता है। इसके बाद जल लेकर माता सीता के पास आते हैं। उन्‍हें मूर्ति और श्रीराम द्वारा उनके त्‍यागे जाने की बात बताते हैं। सीता माता अत्‍यंत आहत होती हैं और वहां से ऋषि वाल्‍मीकि उन्‍हें अपने साथ लेकर जाते हैं।

धीरे-धीरे वक्‍त बीतता है और माता सीता के दो पुत्र होते हैं लव और कुश। कथा मिलती है कि एक बार राजा श्रीराम ने नैमिषारण्‍य धाम में अश्‍वमेघ यज्ञ का अनुष्‍ठान किया। इसके शामिल होने के लिए ऋषि वाल्‍मीकि भी गए। वह अपने साथ सीता, लव और कुश को भी लेकर गए। तभी रास्‍ते में माता सीता को बरगद के नीचे रखी मूर्ति दिखाई दी। उन्‍होंने उस प्रतिमा की स्‍थापना कुश से करवाई और फिर स्‍वयं मंदिर में पूजा-अर्चना की। इसके बाद से मंदिर देवी कुशहरी के नाम से विख्‍यात हुआ। कालांतर में यह कुसुंभी, उन्‍नाव में है।

कुशहरी देवी मंदिर परिसर में एक सुंदर सरोवर भी स्थित है। यह गऊ घाट झील में जाकर मिलता है। मंदिर आने वाले दर्शनार्थी मां के दर्शनों के साथ ही सरोवर के भी दर्शन करने आते हैं। इस सरोवर के जल को भी अत्‍यंत पवित्र माना जाता है।

नवाबगंज, उन्‍नाव में ही कुछ ही दूरी पर आसपास स्थित मां दुर्गा और कुशहरी मंदिर बिल्‍कुल एक जैसे हैं। मंदिर में स्‍थापित मां की प्रतिमा और विग्रह भी एक ही जैसे हैं। दर्शन करने आने वाले श्रद्धालुओं को लगता है जैसे वह एक ही मंदिर में दोबारा दर्शन करने आए हों। मान्‍यता है कि दोनों जुड़वा बहनें हैं इसलिए ही प्रतिमाएं भी एक सी हैं। हालांकि इस बारे में कुछ और साक्ष्‍य अभी तक नहीं मिले हैं।

स्‍थानीय निवासी बताते हैं कि कुशहरी देवी सभी प्रकार के रोगों से भी मुक्ति दिलाती हैं। इसी क्रम में एक उल्‍लेख मिलता है उन्‍नाव के पुरवा निवासी एक नर्तकी के शरीर में लकवा मार गया था। कई जगह इलाज करवाने के बावजूद वह सही नहीं हो पाई तब वह माता कुशहरी के मंदिर आई। माता से प्रार्थना की और कुछ ही दिनों में वह स्‍वस्‍थ हो गई। इसके बाद उसने मंदिर के जीर्णोद्धार भी करवाया।

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