सीख; हिंदी साहित्य सम्मेलन के सालाना जलसा निकलने की तैयारी हो चुकी थी, सब लोग पुरुषोत्तम दास टंडन जी को खोज रहे थे, सबका कहना था कि चूंकि वे अध्यक्ष हैं तो जब वे आएंगे तभी…….
सब लोग पुरुषोत्तम दास टंडन जी को खोज रहे थे। जुलूस निकलने की तैयारी हो चुकी थी। मौका था हिंदी साहित्य सम्मेलन का सालाना जलसा और ये अधिवेशन हो रहा था दिल्ली में। पूरे देश के साहित्यकार मौजूद थे। सबका कहना था कि चूंकि पुरुषोत्तम दास जी अध्यक्ष हैं तो जब वे आएंगे तभी जुलूस निकलेगा।
आखिर लोगों के ये लगा कि अगर वे यहां नहीं हैं तो जरूर अपने घर पर ही होंगे। कुछ लोग उन्हें बुलाने उनके घर गए। जब लोग वहां पहुंचे तो देखा पुरुषोत्तम दास जी खुद के कपड़े धो रहे थे। लोगों ने कहा कि आप यहां अपने कपड़े धो रहे हैं, जुलूस निकलने का समय हो गया है। देरी हो रही है। आप जल्दी चलिए।
लोगों ने उनसे पूछा – आप अपने कपड़े खुद क्यों धो रहे हैं, इस काम के लिए लोग रखे गए हैं, उन्हें करने दीजिए।
पुरुषोत्तम दास जी ने कहा – हिंदी साहित्य सम्मेलन का जुलूस समय पर निकलना चाहिए, ये देश का काम है, एक आदमी के कारण देश के काम में देरी नहीं होनी चाहिए। मुझसे मिलने कुछ लोग आ गए थे तो मैं उनसे बात करने लग गया था। वो अब गए हैं तो मैं कपड़े धो रहा हूं। अपना काम मुझे खुद ही करना अच्छा लगता है। अपने कपड़े मैं किसी और से क्यों धुलवाऊं। ये गलत है।
उस दिन लोगों को लगा कि इन्हें राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन क्यों कहा जाता है, जो राजा भी हो और ऋषि भी। टंडन जी के इस प्रसंग ने सिखाया कि हमें अपने काम खुद करने चाहिए, चाहे हम किसी भी पद पर हों।
सबकः अपने कुछ निजी काम खुद ही करना चाहिए। इससे हमारा खुद से जुड़ाव होता है। हमारा स्वाभिमान भी बना रहता है।