द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वथामा से बहुत ज्यादा मोह रखते थे, अपने पुत्र को भी कौरव और पांडवों के साथ युद्ध कला की शिक्षा दे रहे थे, मोह की वजह से वे अश्वत्थामा, कौरव, पांडवों के बीच भेदभाव भी करते…….

द्वापर युग में यानी महाभारत काल में भारद्वाज ऋषि के पुत्र थे द्रोणाचार्य। द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था। विवाह के बाद द्रोणाचार्य और कृपि ने शिव जी को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। इनकी तपस्या से शिव जी प्रसन्न होकर प्रकट हुए। शिव जी ने इन्हें पुत्र का वरदान दिया था। कुछ समय बाद द्रोणाचार्य के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ। जन्म के बाद वह बच्चा घोड़े की तरह हिनहिना रहा था। इस वजह से द्रोणाचार्य ने बच्चे का नाम अश्वथामा रख दिया। ऐसा माना जाता है कि अश्वत्थामा के रूप में शिव जी ने अंशावतार लिया था।

जानिए द्रोणाचार्य और अश्वत्थमा से जुड़ा प्रेरक प्रसंग…

आचार्य अपने पुत्र अश्वथामा से बहुत ज्यादा मोह रखते थे। अपने पुत्र को भी कौरव और पांडवों के साथ युद्ध कला की शिक्षा दे रहे थे। मोह की वजह से वे अश्वत्थामा, कौरव, पांडवों के बीच भेदभाव भी करते थे। उनकी कोशिश यही रहती थी कि वे अश्वथामा को ज्यादा अच्छा ज्ञान दें।

द्रोणाचार्य अन्य विद्यार्थियों की अपेक्षा अश्वत्थामा को सरल पाठ दिया करते थे। सभी विद्यार्थियों को रोज मटके से पानी भरकर आश्रम लाना होता था और जो विद्यार्थी सबसे पहले पानी भरकर आ जाता था, उसे ज्यादा ज्ञान मिलता था।

द्रोणाचार्य ने सभी के लिए ये नियम बनाया था, उन्होंने अपने पुत्र अश्वथामा को छोटा घड़ा दिया था। ये बात बालक अर्जुन समझ गया, इसीलिए वह पानी लेकर पहुंचने में बिल्कुल भी देरी नहीं करता था। जब द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र की शिक्षा दे रहे थे, उनके पास अर्जुन और अश्वथामा दोनों पहुंचे। अर्जुन ने तो पूरी एकाग्रता के साथ ये विद्या सीख ली, लेकिन अश्वथामा ने ब्रह्मास्त्र का अधूरा ज्ञान ही लिया। उसने ब्रह्मास्त्र आमंत्रित करना तो सीख लिया, लेकिन इसे वापस भेजना नहीं सीखा।

अश्वथामा की सोच ये थी कि द्रोणाचार्य तो मेरे पिता हैं, इनसे मैं ये विद्या कभी भी सीख लूंगा। पुत्र मोह में द्रोणाचार्य ने भी अश्वथामा के साथ सख्ती नहीं की।

द्रोणाचार्य के पुत्र मोह और अश्वत्थामा की लापरवाही का परिणाम महाभारत युद्ध में देखने को मिला। महाभारत युद्ध अंतिम चरण में था। कौरव के सभी बड़े-बड़े यौद्धा मारे जा चुके थे, वे लगभग परास्त हो चुके थे। एक दिन अश्वथामा और अर्जुन आमने-सामने आ गए। दोनों ने ब्रह्मास्त्र निकाल लिया। तब श्रीकृष्ण के समझाने पर अर्जुन ने तो ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया, लेकिन अश्वथामा को तो इसे वापस लेना आता ही नहीं था।

अश्वथामा ने अपना ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर छोड़ दिया। उस समय उत्तरा के गर्भ की रक्षा श्रीकृष्ण ने की। भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वथामा की इस गलती की वजह से उसके माथे पर लगी मणि निकाल ली और उसे हमेशा भटकते रहने का शाप दे दिया।

कथा का संदेश

इस कथा में द्रोणाचार्य अपने पुत्र मोह को छोड़कर अश्वत्थामा को भी सही ज्ञान देते तो अश्वत्थामा को श्रीकृष्ण का शाप मिलता। बच्चों का सुखद और उज्जवल भविष्य चाहते हैं तो उन्हें सही शिक्षा देनी चाहिए। मोह की वजह से उनकी गलतियों को नजरअंदाज न करें, वर्ना उनका ही भविष्य बिगड़ सकता है।

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