शायद आप नही जानते होंगे बद्रीनाथ मंदिर से जुड़ी इन रोचक बातों के बारे में, जानिए
चार धामों में से एक बदरीनाथ धाम के मंदिर का इतिहास काफी रोचक है। आठवीं शताब्दी से लेकर सोल्हवीं शताब्दी तक मंदिर में कई परिवर्तन हुए। कई बार हुई त्रासदी के बाद मंदिर का पुन: निर्माण हुआ और आज यह सनातन धर्म का प्रमुख तीर्थस्थल है। हालांकि श्री हरि का यह धाम शुरू से ही मंदिर रूप में नहीं था और न ही विष्णु भगवान की मूर्ति यहां स्थापित थी।
कहा जाता है कि शंकराचार्यजी अपने बदरीधाम निवास के दौरान छह महीने यहां रुके थे। इसके बाद वह केदारनाथ चले गए थे। हालांकि उन्होंने ही अलकनंदा नदी से भगवान बदरीनाथ की मूर्ति प्राप्त की थी जिसे हिंदू और बैद्ध संघर्ष के दौरान सुरक्षित रखने के लिए साधुओं ने नारदकुंड में डाल दिया था।। इसके बाद तप्त कुंड नामक गर्म चश्मे के पास स्थित एक गुफा में मूर्ति को स्थापित कर दिया। हालांकि यह मूर्ति गुफा से विलुप्त हो गई और पुन: तप्तकुंड में ही पहुंच गई। यह दो बार हुआ। कथा मिलती है कि तीसरी बार संत रामानुजाचार्य ने मूर्ति की स्थापना करवाई।
पारंपरिक कथा के अनुसार शंकराचार्य ने परमार शासक राजा कनक पाल की सहायता से इस क्षेत्र से बौद्धों को निष्कासित कर दिया। इसके बाद कनकपाल और उनके उत्तराधिकारियों ने इस मंदिर की प्रबंध व्यवस्था संभाली। कथा मिलती है कि 16 वीं शताब्दी में गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने बदरीनाथ की मूर्ति को गुफा से निकालकर वर्ममान मंदिर में स्थापित कर दिया। बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने यहां पर सोने का छत्र चढ़ाया। 20वीं शताब्दी में जब गढ़वाल राज्य दो भागों में बंटा तब बदरीनाथ मंदिर ब्रिटिश हुकूमत के आधीन हो गया। लेकिन राज्य बंटने के बाद भी मंदिर का प्रबंधन और प्रशासन गढ़वाल के राजा के पास ही रहा।
भगवान बदरीनाथ के इस मंदिर को हिमस्खलन के चलते कई बार नुकसान पहुंचा लेकिन गढ़वाल के राजाओं ने मंदिर के नवीनीकरण के साथ ही इसका विस्तार भी किया। 1803 में इस क्षेत्र में आए भूकंप से मंदिर को काफी नुकसान पहुंचा। इस घटना के बाद जयपुर के राजा ने मंदिर का पुन: निर्माण करवाया। मंदिर का निर्माण कार्य 1870 के अंत तक चला। आज निरंतर प्रयास और विकास के क्रम में बदरीनाथ का दरबार भक्तों के लिए खुला है जहां लाखों की संख्या में अब श्रद्धालु हर साल यहां आते हैं।