कितने होते हैं मनुष्य के जीवन में चरण और क्या है उनका महत्व, जानिए
सनातन संस्कृति में कई ऐसे सिद्धांत हैं, जिनके पीछे तार्किक व वैज्ञानिक दोनों रहस्य छिपे हुए हैं। कई ऋषि एवं धर्माचार्यों ने मनुष्य के जीवन पर आधारित सिद्धांतों को ग्रंथ एवं उपनिषदों में वर्णित किया है। इसी प्रकार उनके द्वारा जीवन के चार चरणों को ही विस्तार बताया गया है। वह चार चरण है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
बता दें कि एक भारतीय का औसत जीवन 100 वर्ष का माना जाता है। इसी आधार पर इन 4 चरणों को विभाजित किया गया है। इन सभी चार चरणों को आश्रम की संज्ञा भी दी गई है। यह वैदिक जीवन के चार सिद्धांत भी माने जाते हैं, जिन्हें कर्तव्य रूप में निभाने से मनुष्य का जीवन सार्थक होता है। साथ ही इन सिद्धांतों का पालन कर मृत्यु के उपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है। आज हम इसी विषय पर बात करेंगे और जानेंगे, क्या है मनुष्य के जीवन के चार चरण और क्यों इनका पालन किया जाना है महत्वपूर्ण?
ब्रह्मचर्य आश्रम
जन्म के उपरांत शिशु से युवावस्था तक मनुष्य कई प्रकार के ज्ञान को अर्जित करता है। वह दौरान बोलना सीखता, व्यवहार सीखता है और विद्यार्जन करता है। प्राचीन काल में ब्रहचर्य के समय बालक में गुरुकुल विद्या ग्रहण करते थे। जहां उन्हें धर्म शास्त्रों एवं वेदों का ज्ञान प्राप्त होता था। ब्रह्मचर्य का पालन करने से जीवन शिक्षा, अनुशासन, आज्ञाकारिता इत्यादि की प्राप्ति होती है। इसके साथ जीवन में उपयोग में लाए जाने वाले आवश्यक कौशल भी इसी दौरान प्राप्त होते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि जो व्यक्ति सफलतापूर्वक ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करता है, उन्हें अपने जीवन में कई प्रकार की सफलताएं प्राप्त होती हैं और उनका जीवन अनुशासित रहता है।
गृहस्थ आश्रम
ब्रह्मचर्य आश्रम पूरा करने के बाद व शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करने के बाद जब एक व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से समाज में ढलने के लिए परिपक्व हो जाता है, तब उसे गृहस्थ जीवन अपनाना चाहिए। गृहस्थ जीवन में व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम इत्यादि कर्तव्यों को पूरा करता है। शास्त्रों में बताया गया है कि इस दौरान व्यक्ति को वह सभी कार्य करने चाहिए, जिससे समाज में धर्म का उत्थान हो और सभी मनुष्य जाति का कल्याण हो सके। इसके गृहस्थ आश्रम चुनौतियों से भी भरा रहता है और इसी दौरान मनुष्य की कठिन परीक्षा ली जाती है। लेकिन जो व्यक्ति अधर्म के आगे झुके बिना गृहस्थ आश्रम का पालन करता है, उसके लिए मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सरल हो जाता है।
वानप्रस्थ आश्रम
वानप्रस्थ आश्रम जीवन का तीसरा चरण है और इस चरण में व्यक्ति तब प्रवेश करता है जब वह शारीरिक रूप से कमजोर होने लगता है। तब वह युवा पीढ़ी को आने वाली जिम्मेदारियों के विषय में बताता है। वानप्रस्थ का शाब्दिक अर्थ वनवासी है, लेकिन इस संदर्भ में इसलिए प्रयोग किया जाता है क्योंकि व्यक्ति इस दौरान सांसारिक दायित्वों को कम कर धर्म-कर्म में अपना समय अधिक व्यतीत करता है। इस दौरान वह सांसारिक जिम्मेदारियों से पलायन नहीं किया जाता है, बल्कि युवा पीढ़ी से अपने अनुभवों को साझा कर उन्हें भी एक अच्छा व्यक्ति बनने की प्रेरणा देता है। इस दौरान व्यक्ति द्वारा व्यस्तता को दूर रहकर शांति में समय अधिक बिताया जाता है।
संन्यास आश्रम
जीवन का अंतिम चरण संन्यास आश्रम है। इस दौरान व्यक्ति धन, अर्थ, भौतिक सुख इत्यादि को त्याग कर संन्यास ग्रहण करता है। साथ ही स्वयं को सभी इच्छाओं और कर्तव्यों से मुक्त कर लेता है। संन्यास आश्रम ग्रहण करने से मोक्ष प्राप्त करने का लक्ष्य आसान होता है। इस दौरान सांसारिक चिंताओं को दूर रखकर केवल भगवान का नाम लिया जाता है और उन्हीं का अनुसरण किया जाता है। ऐसा करने के लिए आश्रम या किसी धार्मिक स्थल पर रहना आवश्यक नहीं है। बल्कि, परिवार के साथ रहते हुए, व्यक्ति भौतिक दुनिया की चकाचौंध से दूर रह सकता है। माना जाता है कि जो व्यक्ति इन सभी चार चरणों को सफलतापूर्वक पूर्ण कर लेता है, उन्हें मृत्यु के उपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है।